Organised Plays Performed By Visually Impaired
Anant Ki Aankhen
अनन्त एक जन्मान्ध बालक है जिसे प्रकृति से बेहद प्यार है। एक फूल की मधुर सुगंध से परिचित होकर वह रंगों और सुन्दरता के बारे में जानने को उत्सुक हो जाता है। वह कल्पना में फूल से बात करता है और उसे परम मित्र मानकर अपनी जिज्ञासा शान्त करने का प्रयत्न करता है। स्पष्ट उत्तर न मिलने पर वह अपने पिता बिरमा से यही प्रष्न करता है। बिरमा अपने इकलौते जन्मांध पुत्र अनन्त को रंगों और सुन्दरता के सम्बन्ध में सामान्य बातें बताता है। अनन्त के मन मंे रंगों और सुन्दरता को चित्र रूप में उतारने की इच्छा बलवती हो जाती है।
अपनी सीमाएं समझते हुए बिरमा अपने पुत्र को महानगर स्थित एक कलाकेन्द्र में प्रवेश दिलवाता है; किन्तु अनन्त वहाँ दृष्टिवान बच्चों के उपहास और व्यंग्य का केन्द्र बन जाता है। उसका पिता संकल्प लेता है कि इस विषय का ज्ञान प्राप्त करके वह अपने पुत्र को शिक्षित करेगा। वह अनन्त को स्पर्ष, गंध, ध्वनि और जिव्हा के आस्वाद के माध्यम से दृष्टि का विकल्प तलाश करता है; किन्तु पूरी तरह सफल नहीं हो पाता। फिर भी अनन्त की लगन और मेहनत उसे रंगों की अनुभूति की ओर अग्रसर करती है। वह पिता द्वारा बनाए गए रेखा-चित्रों में अपनी प्रज्ञा से रंग भरता है, जो उसे एक सीमा तक रंगों की सुन्दरता को आत्मसात के द्वार तक पहुँचा देते हैं। बिरमा अपने पुस्तकीय ज्ञान के अनुसार सामाजिक यथार्थ का अनुभव करने की सलाह देता है। अपने समय की सबसे बड़ी दो समस्याओं, यथा भ्रष्टाचार और आतंकवाद के सम्बन्ध में जानने पर उसके मन में कला की सार्थकता से सम्बन्धित प्रश्न जागता है।
विशिष्ट कलागुरु उसे भारतीय संस्कृति और परम्परा के अनुसार कला की सार्थकता और कल्पना से जागृत हुए विशुद्ध भावों के सम्प्रेषण की सलाह देते हैं। साथ ही स्पर्ष, गंध, स्वर और रस के द्वारा रंगों की पहचान करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यथार्थ की कुरुपता को अपनी शुद्ध भावनाओं के अनुसार सुन्दरतम रूप में प्रस्तुत करने की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। कलागुरु की शिक्षा अन्ततः उस जन्मांध बालक अनन्त को एक सफल चित्रकार के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
Jashn-E-Eid
बूढ़ी अमीना अत्यन्त गरीबी की स्थिति में अपने इकलौते पोते हामिद का पालन-पोषण कर रही है। गाँव में सभी धर्मो और समुदायों के लोग अमन-चैन से रहते हैं। इसी दौरान सफ़ीर नाम का एक दुष्ट व्यक्ति गांव में घुस आया है, जो गांव के अमन-चैन का दुष्मन है। वह आतंकियों से मिलकर गांव के पंड़ित का अपहरण करवा देता है। मगर गांव के लोगों की एकता और हामिद के दोस्तों की बुद्धिमता से आतंकियों का खात्मा हो जाता है। मौलवी साहब सफ़ीर को गांव से निकल जाने का हुक्म देते हैं।
अब गांव में ईद के त्यौहार की तैयारियाँ चल रही है। गरीब अमीना ने ईद के त्यौहार के लिए बड़ी कठिनाई से कपड़े सिलकर आठ आने बचाए हैं। उसमें से छः आने ग्वालिन अपने दूध के पैसे वसूल कर ले गई। षेष दो आने यानी आठ पैसांे में से तीन पैसे उसने हामिद को ईदी के लिए दिए। बाकी पाँच पैसे उसने ईद पर कपड़े खरीदने, सेवईयाँ आदि बनाने के लिए रख लिए। हामिद अपने दोस्तों के साथ ईद के मेलें में जाताहै। एक लोहे के सामान की दूकान पर चिमटा देखकर हामिद को याद आता हैं कि उसकी दादी के पास चिमटा नहीं है, जिससे रोटियाँ बनाते समय अकसर उसका हाथ जल जाता है। हामिद अपने तीन पैसों से चिमटा खरीद लेता है। चिमटा देखकर उसके सभी साथी उसका मजाक उड़ाते हैं।
मगर हामीद चिमटें का ऐसा बखान करता है कि उसके सभी साथी परास्त हो जाते हैं। घर पहुँचकर जब हामिद अपनी दादी को तीन पैसों से खरीदा हुआ चिमटा देता है तो अमीना अपने नन्हें पोते हामिद की भावना को समझकर भावावेष में फफक कर रो पड़ती है।
Nandan Katha
नन्दन जन्मान्ध है और उसका बड़ा भाई षोभित दृष्टिवान। पिता अपने बेटे षोभित को जितनी अधिक सुविधाऐं प्रदान करते हैं, नन्दन उन सभी से पूरी तरह वंचित है। षोभित कुषाग्र बुद्धि है और ज़िले में सर्वोच्च अंक लाकर छात्रवृत्ति प्राप्त करता है। पिता से पूरी तरह उपेक्षित नन्दन को अपनी माँ सरला का भरपूर प्यार मिलता है। सरला उसे संगीत, नृत्य और खेल के साथ षिक्षित करने का प्रयास करती है। बस्ती का एक धूर्त व्यक्ति जीवन सिंह नन्दन के पिता भोलाषंकर को सलाह देता है कि नन्दन का पूरा भविष्य अंधकारमय है और स्वयं भोला षंकर की सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है। उसके षड्यंत्र में फंसकर भोला षंकर अपने पुत्र को धन के बल पर एक अनाथालय में भर्ती करवाने के लिए तैयार हो जाता है। किन्तु नन्दन की माँ सरला और उसके बड़े भाई षोभित के तीव्र विरोध के कारण सफल नहीं हो पाता।
परिवार के एक रिष्तेदार के बेटे के विवाह में सम्मिलित होने के लिए भोला षंकर नन्दन को घर में बंद करके चले जाते हैं। उपेक्षित नन्दन अपने ही घर में बंदी का जीवन जीने के लिए विवष हो जाता है। भजन के गायक आश्रमवासी स्वामी नन्दन को उचित षिक्षा देने के लिए उसे अपना षिष्य बना लेते हैं।
दूसरी ओर धूर्त जीवन सिंह का घर बस्ती में लगी आग के कारण पूरी तरह भस्मीभूत हो जाता है। उसकी पत्नी, बच्चे, धन, दौलत सभी कुछ खाक में मिल जाता है। वह स्वयं जीवित बच जाता है, किन्तु अंधा हो जाता है। षोभित बाहर में एक परीक्षा देने जाता है और अंधे जीवन सिंह को भीख मांगते देख कर वापिस अपने गाँव ले आता है।
स्वामी जी से षिक्षा पाकर नन्दन एक विनम्र और उदारवादी षिष्य बन जाता है। षोभित अपने साथ अपने पिता भोलाषंकर और दृष्टिबाधित हो गए जीवन सिंह को आश्रम में ले आता है। जीवन सिंह और भोलाषंकर के प्रायष्चित और स्वामीजी के संगीतमय मधुरवचनों के साथ नाटक समाप्त होता है।
Rang
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